Tuesday, February 24, 2009

हिन्दी लेखन और पाठक

हिन्दी में लेखन अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है ! वैसे भी मातृभाषा में लिखना ठीक वैसा ही है, जैसे माँ की गोद में बैठकर कोई कहानी सुनना । मेरे इस चिट्ठे में पहली बार मैं हिन्दी में लिख रहा हूँ । मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण यूँ तो विद्यार्थी जीवन से ही मेरी हिन्दी बहुत अच्छी रही है और मैंने १२ वीं बोर्ड की परीक्षा में इस भाषा में विशेष योग्यता भी हासिल की थी, परन्तु मुझे हिन्दी में स्वविचारों के लेखन एवं उसके लिए प्रथम पारितोषिक मेरी स्नातक प्रथम वर्ष की पढ़ाई के दौरान "हिन्दी दिवस" पर आयोजित निबंध प्रतियोगिता में मिला था, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता । शायद उसका एक कारण यह भी है कि मुझे यह पुरस्कार उस समय मेरे गृह नगर अशोक नगर के तत्कालीन एस डी एम, आई ए एस अधिकारी श्री चितरंजन कुमार खेतान के हाथों मिला था जो कि स्वयं एम ए (हिन्दी) में गोल्ड मेडलिस्ट थे और सिविल सर्विसेस परीक्षा में उन्होंने हिन्दी माध्यम से सफलता पाई थी । तब मैं यह नहीं जानता था कि एक दिन मुझे इनके साथ काम करने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा ।

हिन्दी में चिट्ठा लेखन का जनक आलोक कुमार को कहा जाता है । "देवनागरी" शीर्षक से लिखे जाने वाले अपने चिट्ठे में वे न केवल समसामयिक विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं, अपितु पाठकों की हिन्दी में लेखन की समस्याओं का भी हल बताते हैं । आजकल हिन्दी में काफी लिखा जा रहा है और हिन्दी में चिट्ठा लेखन ने इसको और भी सुगम बना दिया है । फिर भी एक बात जो शायद मैं ठीक से नहीं समझ पाया वो ये कि क्यों आज प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन जैसे लेखक और उनके जैसी कालजयी कृतियाँ पाठकों को पढने नही मिलतीं । चूंकि आजकल अंग्रेज़ी गद्य में अच्छे लेखक और अच्छे उपन्यास लिखे जा रहे हैं इसलिए बरबस ही अपनी पढने की क्षुधा को शांत करने के लिए उनको पढ़ रहा हूँ । चेतन भगत, विकास स्वरुप, अरविन्द अदिगा, झुम्पा लाहिडी, जैसे लेखकों की किताबें पढने में काफी रुचिकर लगती हैं । दुर्भाग्यवश हिन्दी में इस तरह का लेखन आजकल या तो नही हो रहा है या इनको छापने के लिए प्रकाशकों का अभाव है, जिसके कारण ऐसी रचनाएँ देखने में नही आ रही हैं । कारण जो भी हो, पर हिन्दी के पाठकों के लिए यह सुखद स्थिति नही है ।

कुछ समय पहले मैंने प्रसिद्ध ब्राजीली लेखक पाउलो कोएल्हो द्वारा लिखित किताब 'दा अल्केमिस्ट' का स्वर्गीय कमलेश्वर द्वारा अनुवादित हिन्दी संस्करण पढ़ा था, उसके तुंरत बाद मैंने उसका मूल अंग्रेज़ी संस्करण पढ़ा । मेरी खुशी का तब कोई ठिकाना नहीं रहा जब मैंने हिन्दी अनुवाद को अंग्रेज़ी मूल से किसी भी तरह कमतर नहीं पाया । ऐसा शायद इसलिए क्योंकि स्वर्गीय कमलेश्वर की स्वयं की रचना 'कितने पाकिस्तान' एक कालजयी कृति है और वे हिन्दी के उत्कृष्ट लेखक होने के साथ साथ अंग्रेज़ी किताबों के भी एक अच्छे पाठक थे । शायद यह बात आज के हिन्दी के लेखक और उनके लेखन की सच्ची दास्तान को बयां करती है । भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है पर विचार किसी भाषा विशेष तक ही सीमित नही होते । इसलिए विचारों को ग्रहण करने के लिए एक अच्छा पाठक होना बहुत आवश्यक है ।

आज के लिए बस इतना ही......
रिषभ

1 comment:

  1. छत्ती सगढ के विचार मंच में आपक स्वासगत, है अगर आपके कोई भी खबर या जानकारी है जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध छत्तीसगढ से है तो बस कह दीजिये हमें इंतजार है आपके सूचना या समाचारों का घन्यवाद

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